अंजान गली से शतरंज की दुनिया तक : मोहम्मद रफीक खान
शतरंज में जब भी महान खिलाड़ियों की चर्चा होती है, तो अक्सर विश्वनाथन आनंद का नाम सबसे पहले आता है। मगर बहुत कम लोगों को पता है कि आनंद से भी पहले किसी और ने भारतीयर शतरंज इतिहास में बड़ा कारनामा कर दिखाया था। सवाल है—कौन थे ये शख्स? नाम है मोहम्मद रफीक खान। भोपाल के एक मामूली कारपेंटर जिनकी मेहनत ने 1980 के माल्टा शतरंज ओलंपियाड में भारत को पहला पदक दिलाया था।
वह दौर ऐसा था जब शतरंज ना घर-घर पहुँचा था, ना सरकार या किसी कंपनी की तरफ से मदद मिलने का सवाल था। रफीक खान दिन में लकड़ी काटते, रात को मोमबत्ती जलाकर शतरंज की गुत्थियाँ सुलझाते। पैसे इतने कम कि टूर्नामेंट में जाना भी जद्दोजहद से कम नहीं था। मगर उन्होंने कभी हार नहीं मानी।
1980 माल्टा ओलंपियाड: इतिहास की बिसात पर सुनहरी चाल
मोहम्मद रफीक खान ने 1980 माल्टा ओलंपियाड में तीसरे बोर्ड पर भारत का प्रतिनिधित्व किया। 13 में से 10 पॉइंट्स (9 जीत, 2 ड्रॉ, 2 हार) के साथ उन्होंने सिल्वर मेडल अपने नाम किया। यह भारत का पहला शतरंज ओलंपियाड पदक था। तब देश को शायद अंदाजा भी नहीं था कि एक मामूली कारपेंटर की जीत पूरी युवा पीढ़ी की सोच बदल देगी।
रोचक बात यह है कि जब रफीक खान ने यह कमाल किया, तब विश्वनाथन आनंद शतरंज की दुनिया में बस कदम रख रहे थे। खान की ये जीत यूरोप की चमकदार शतरंज संस्कृति में भारत जैसी आर्थिक रूप से कमजोर देश की उपस्थिति का ऐलान थी—जहाँ साधनों की कमी से सपनों की उड़ान रुकती नहीं।
यह वो वक्त था जब शतरंज को अमीर, खासतौर पर यूरोपियनों का खेल माना जाता था। मगर खान की जीत ने बदलते भारत की बुनियाद रखी। इसके बाद वी. आनंद, एस. विजयलक्ष्मी जैसी नई पीढ़ी ने भी रास्ता पकड़ा। दोगुनी मेहनत, संघर्ष और आत्मविश्वास के दम पर खान शतरंज राष्ट्रीय चैंपियन भी बने।
रफीक खान की कहानी बताती है कि मुश्किलें कितनी भी बड़ी हों, जुनून और तपस्या से हर राह आसान हो जाती है। उनकी तरह तमाम युवाओं को कभी भी हालात के आगे हार नहीं माननी चाहिए। महिला टीम ने भले साल 2000 में विजयलक्ष्मी के नेतृत्व में पदक पाया, मगर खान की बिसात पर चली पहली चाल ने ही भारतीय शतरंज का चेहरा बदल दिया था।